बिहार के गया से लगभग तीस किलोमीटर दूर एक गाँव है गहलौर (अत्री ब्लॉक), पहाड़ी के किनारे किनारे जाती एक लम्बी वीरान सी सड़क, एक ओर से पूरी तरह पहाड़ी से घिरे होने के कारण सबसे नजदीकी शहर (वजीरगंज) जाने के लिए
सत्तर-अस्सी किलोमीटर का लम्बा चक्कर, और तो और पीने का पानी भी लाने के लिए
रोजाना पहाड़ी के ऊपर चढ़कर तीन किलोमीटर का कठिन पथरीला डगर। तो ये थी बिहार के उस सुदूर
गाँव के वशिंदों की पीड़ा। लेकिन ग्रामीणों के लिए अभिशाप बन चुके इस पर्वत को
झुकाने वाले युगपुरुष का प्रादुर्भाव भी शायद अब हो ही चुका था।
एक दिन पर्वत पार करने के क्रम में
ही एक महिला लड़खड़ा कर गिर जाती है और उसका मटका फूट जाता है।
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बोध
गया देख लेने के बाद सोचा की जब गया तक आ ही गया, फिर उस महान पुरुष की कृति देखे
बिना यहाँ से भाग जाना उनका असम्मान ही होगा।
गया से उनके गाँव गहलौर जाने के लिए बसें तो चलती है, मगर शाम को अधिक अँधेरा हो जाने पर वापस आने में परेशानी हो सकती है, इसीलिए सुबह-सुबह ही चलकर दोपहर तक वापस आ जाने में ही भलाई है। लेकिन ये सब बातें भला हमें पहले ही बताता कौन? दोपहर के ढाई बज रहे थे, और पता चला की अगर बस से चले भी जाते हैं तो वापस आते-आते अँधेरा हो जायेगा और फिर बस नहीं भी मिलेगी। उस मार्ग में ऑटो भी नहीं चलती है। फिर भी किसी तरह एक ऑटो वाला जाने के लिए तैयार हो गया।
गया से उनके गाँव गहलौर जाने के लिए बसें तो चलती है, मगर शाम को अधिक अँधेरा हो जाने पर वापस आने में परेशानी हो सकती है, इसीलिए सुबह-सुबह ही चलकर दोपहर तक वापस आ जाने में ही भलाई है। लेकिन ये सब बातें भला हमें पहले ही बताता कौन? दोपहर के ढाई बज रहे थे, और पता चला की अगर बस से चले भी जाते हैं तो वापस आते-आते अँधेरा हो जायेगा और फिर बस नहीं भी मिलेगी। उस मार्ग में ऑटो भी नहीं चलती है। फिर भी किसी तरह एक ऑटो वाला जाने के लिए तैयार हो गया।
गया से गहलौर के लिए सफ़र शुरू हो चुकी थी। माउंटेन मैन के बारे उनपर बनी फिल्म देखकर सबसे पहले जानकारी प्राप्त हुई थी। एक अकेला आदमी कैसे लगातार बाईस साल तक एक पर्वत को काटने का धैर्य जुटा सकता है, यह वाकई आश्चर्यजनक है। गया से बारह किलोमीटर बाद एक मोड़ है- भिंडस मोड़। यहाँ से एक रास्ता वजीरगंज और एक रास्ता गहलौर की ओर मुड जाता है। गहलौर जाने वाली सड़क एक वनस्पतिहीन पहाड़ी के किनारे किनारे होकर ही जाती है, दूर-दूर तक सिर्फ खेत नजर आते हैं, और इक्के-दुक्के सवारी गाड़ियां। आबादी भी काफी कम। लेकिन सिर्फ रास्ता चकाचक है। यह इलाका देखने पर बिहार जैसे राज्य के 'विकास' की असलियत पता चलती है। न ढंग का कोई स्कूल, न कोई हॉस्पिटल। इसी बीच अगर कहीं एक छोटा सा यात्री पड़ाव भी दिख जाये तो, वहां भी संगमरमर पर किसी नेता का नाम लिखा मिलेगा।
बस इन्ही ख्यालों में डूबा था और अचानक ऑटो वाले ने कहा की अरे वो रहा दशरथ जी का घर! दो-चार झोपड़ियों के बीच एक छोटा सा मकान और रोड पर खेलते हुए बच्चे। एक बुजुर्ग महिला हमारे ऑटो में आकर बैठ गयी और उनसे मैंने गाँव के बारे कुछ पूछा। उन्होंने सबसे पहले ही कह दिया की "मैं मांझी जी की बहू हूँ", हम सब बहुत खुश हुए यह जानकर की इतने महान व्यक्ति के परिवार के किसी सदस्य से मुलाकात भी हो गयी। मैंने पूछा की सरकार ने आपके परिवार को कुछ दिया? उन्होंने कहा कुछ ख़ास नहीं, सिर्फ पहाड़ी के पास उनके नाम एक विश्रामालय बनवा दिया, और घर के आगे एक मूर्ति! बाकि परिवार आज भी वही गरीबी में ही जी रहा है। फिल्म बनाने वाले भी आये थे, लेकिन उनको क्या? यहाँ अच्छी-खासी कहानी मिली, कमाकर चले गए। दशरथ जी का देहांत सन 2007 में ही नई दिल्ली के एम्स में कैंसर से लड़ते हुए हो चुका है। इस गाँव को लोग दशरथ मांझी के गाँव के नाम से ही जानते है, "दशरथ नगर" आज इसका औपचारिक नाम है।
दशरथ जी के घर से तीन किलोमीटर आगे ही वो पहाड़ी है, जिसे उन्होंने बाईस साल तक काटा। इसे आज गहलौर घाटी के नाम से जाना जाता है। हमलोगों ने जैसे ही घाटी की ओर कदम बढाया, ग्रामीण बड़ी उत्सुकता से हमें देखने लगे! सोचते होंगे भला ये भी कोई घूमने की जगह है! साइकिल से गुजरते हुए कुछ ग्रामीणों से बातचीत के दौरान पता चला की दशरथ जी यही पर बैठा करते थे, अपना हथौड़ा और छेनी लेकर। कितना धैर्य रहा होगा! कुछ लोग उनका हौसला बढाते, कुछ पागल भी कहते। अपने ही परिवार के लोग भी खिलाफ ही थे, लेकिन उनका इरादा उस पर्वत से भी ज्यादा अटल था।
दरअसल गाँव के लोगों को पानी लाने के लिए रोजाना पहाड़ी पार कर जाना पड़ता था, इसी क्रम में दशरथजी की पत्नी फगुनिया (फागुनी देवी) एक दिन गिरकर बुरी तरह जख्मी हो जाती है, और शहर दूर होने के कारण सही समय पर इलाज नहीं हो पाता। वो दम तोड़ देती है। अगर पहाड़ बाधा नहीं होता तो शहर की दूरी सत्तर के बजाय सात किलोमीटर ही होती और उसका इलाज हो सकता था। इस घटना ने दशरथ जी को झकझोर कर रख दिया। अंत में खुद ही पहाड़ काटने की ठान ली। लेकिन यह भी कोई आसान काम न था। रोजी-रोटी की भी समस्या थी। छोटे-छोटे बच्चे थे। फिर भी जूनूनी होकर अपने भेड़-बकरियों को भी बेच डाला, और फावड़ा , हथौड़ा, छेनी खरीद लिया। दिन-रात एक कर पहाड़ काटते-काटते उनकी उम्र 24 से 46 हो गयी। तब जाकर सन 1982 के आस पास 365 फीट लम्बी, 25 फ़ीट गहरी और 30 फीट चौड़ी सड़क बनी। इतना ही नहीं, बाद में सरकार से सड़क, स्कूल, अस्पताल आदि के लिए रेल की पटरियों के किनारे-किनारे पैदल ही चलकर दिल्ली तक का रास्ता नाप लिया और वहां अपनी याचिका दी। बाद में उनके दुनिया से जाने के चार साल बाद 2011 में आख़िरकार सरकार ने इसकी सुध ली, और सड़क को और चौड़ा कर दोनों ओर जोड़ने वाली सड़क को आगे बढाया, जिसे दशरथ मांझी पथ का नाम दिया गया।
कहते हैं की ताजमहल मुहब्बत की एक मिसाल है, क्योंकि उसे एक बादशाह ने बनवाया था। बादशाह के पास तमाम साधन और नौकर-चाकर थे। लेकिन उस बेचारे गरीब के पास क्या था, सिवाय अपने श्रम के, खून-पसीना बहाने के? अपनी मुहब्बत के लिए उस गरीब ने पर्वत को चिर कर रास्ता बना डाला। साथ ही यह मुहब्बत आगे चलकर गाँववालो के लिए भी वरदान बन गयी। अब आप मुहब्बत की असली मिसाल किसे कहेंगे?
बस इन्ही ख्यालों में डूबा था और अचानक ऑटो वाले ने कहा की अरे वो रहा दशरथ जी का घर! दो-चार झोपड़ियों के बीच एक छोटा सा मकान और रोड पर खेलते हुए बच्चे। एक बुजुर्ग महिला हमारे ऑटो में आकर बैठ गयी और उनसे मैंने गाँव के बारे कुछ पूछा। उन्होंने सबसे पहले ही कह दिया की "मैं मांझी जी की बहू हूँ", हम सब बहुत खुश हुए यह जानकर की इतने महान व्यक्ति के परिवार के किसी सदस्य से मुलाकात भी हो गयी। मैंने पूछा की सरकार ने आपके परिवार को कुछ दिया? उन्होंने कहा कुछ ख़ास नहीं, सिर्फ पहाड़ी के पास उनके नाम एक विश्रामालय बनवा दिया, और घर के आगे एक मूर्ति! बाकि परिवार आज भी वही गरीबी में ही जी रहा है। फिल्म बनाने वाले भी आये थे, लेकिन उनको क्या? यहाँ अच्छी-खासी कहानी मिली, कमाकर चले गए। दशरथ जी का देहांत सन 2007 में ही नई दिल्ली के एम्स में कैंसर से लड़ते हुए हो चुका है। इस गाँव को लोग दशरथ मांझी के गाँव के नाम से ही जानते है, "दशरथ नगर" आज इसका औपचारिक नाम है।
दशरथ जी के घर से तीन किलोमीटर आगे ही वो पहाड़ी है, जिसे उन्होंने बाईस साल तक काटा। इसे आज गहलौर घाटी के नाम से जाना जाता है। हमलोगों ने जैसे ही घाटी की ओर कदम बढाया, ग्रामीण बड़ी उत्सुकता से हमें देखने लगे! सोचते होंगे भला ये भी कोई घूमने की जगह है! साइकिल से गुजरते हुए कुछ ग्रामीणों से बातचीत के दौरान पता चला की दशरथ जी यही पर बैठा करते थे, अपना हथौड़ा और छेनी लेकर। कितना धैर्य रहा होगा! कुछ लोग उनका हौसला बढाते, कुछ पागल भी कहते। अपने ही परिवार के लोग भी खिलाफ ही थे, लेकिन उनका इरादा उस पर्वत से भी ज्यादा अटल था।
दरअसल गाँव के लोगों को पानी लाने के लिए रोजाना पहाड़ी पार कर जाना पड़ता था, इसी क्रम में दशरथजी की पत्नी फगुनिया (फागुनी देवी) एक दिन गिरकर बुरी तरह जख्मी हो जाती है, और शहर दूर होने के कारण सही समय पर इलाज नहीं हो पाता। वो दम तोड़ देती है। अगर पहाड़ बाधा नहीं होता तो शहर की दूरी सत्तर के बजाय सात किलोमीटर ही होती और उसका इलाज हो सकता था। इस घटना ने दशरथ जी को झकझोर कर रख दिया। अंत में खुद ही पहाड़ काटने की ठान ली। लेकिन यह भी कोई आसान काम न था। रोजी-रोटी की भी समस्या थी। छोटे-छोटे बच्चे थे। फिर भी जूनूनी होकर अपने भेड़-बकरियों को भी बेच डाला, और फावड़ा , हथौड़ा, छेनी खरीद लिया। दिन-रात एक कर पहाड़ काटते-काटते उनकी उम्र 24 से 46 हो गयी। तब जाकर सन 1982 के आस पास 365 फीट लम्बी, 25 फ़ीट गहरी और 30 फीट चौड़ी सड़क बनी। इतना ही नहीं, बाद में सरकार से सड़क, स्कूल, अस्पताल आदि के लिए रेल की पटरियों के किनारे-किनारे पैदल ही चलकर दिल्ली तक का रास्ता नाप लिया और वहां अपनी याचिका दी। बाद में उनके दुनिया से जाने के चार साल बाद 2011 में आख़िरकार सरकार ने इसकी सुध ली, और सड़क को और चौड़ा कर दोनों ओर जोड़ने वाली सड़क को आगे बढाया, जिसे दशरथ मांझी पथ का नाम दिया गया।
कहते हैं की ताजमहल मुहब्बत की एक मिसाल है, क्योंकि उसे एक बादशाह ने बनवाया था। बादशाह के पास तमाम साधन और नौकर-चाकर थे। लेकिन उस बेचारे गरीब के पास क्या था, सिवाय अपने श्रम के, खून-पसीना बहाने के? अपनी मुहब्बत के लिए उस गरीब ने पर्वत को चिर कर रास्ता बना डाला। साथ ही यह मुहब्बत आगे चलकर गाँववालो के लिए भी वरदान बन गयी। अब आप मुहब्बत की असली मिसाल किसे कहेंगे?
एक प्रसिद्द गीतकार ने कहा है-
"बनाकर ताजमहल किसी बादशाह ने, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक"
लेकिन आज दशरथ साहब ने गरीबों की मुहब्बत की लाज रख ली है। वे सदैव एक जननायक के तौर पर जाने जायेंगे, उनकी मिसाल युगों-युगों तक दी जाती रहेगी। गहलौर घाटी मुहब्बत के एक और ताज के रूप में जानी जाती रहेगी।
अब गहलौर से कुछ पन्ने-
अब गहलौर से कुछ पन्ने-
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शानदार लेख, और शानदार फ़ोटो प्रजापति जी।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत ही बढ़िया लिखा है rd जी।।।में भी बोध गया गया था।पर मुझे तो इस का पता ही नही था।।।खेर आपने भी एक अच्छा प्रयास किया है।
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन भाई.
Deleteवाह...
ReplyDeleteराम भाई आपने दशरथ नगर जाकर,माँझी परिवार को सम्मान दिया,और यह पोस्ट लिखकर माउंटेन मेन को श्रद्धांजलि...
धन्यवाद सुमित जी. आपकी इतनी सकारात्मक एवं उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया ने माउंटेन मेन के प्रति इस श्रद्धांजलि को सफल बना दिया.
Deletewow! nice article and beautiful pics....thanks for share.......
ReplyDeletemost welcome sir!
Deleteदशरथ मांझी की कहानी अभी बीते साल एक फिल्म में देखी थी, आज आपके ब्लॉग के माध्यम से यह जाना की उन्होने सड़क बनाने के बाबजूद सरकार ने उनके परिवार के लिए कुछ नही किया, यह गलत है।
ReplyDeleteजी हाँ यही तो देश की विडंबना है सचिन जी. यहाँ माटी से जुड़े लोगों का कोई महत्व नहीं, लेकिन AC कमरे में बैठ कर मुर्ग-मुस्सलम उड़ाने वालों का खूब राज है.
Deleteप्रजापति जी..... The Mountain Men फिल्म मैंने नहीं देखी, पर आपके लेख से पता चला की ये फिल्म दशरथ मांझी के ऊपर ही बनी है... एक आदमी के अडिगता और जोश अच्छे अच्छे पहाड़ को तोड़ देता है ...... आपका लेख अच्छा लगा और फोटो भी... |
ReplyDeleteएक सलाह ....जो मैं समझता हूँ उस अनुसार...फोटो पर जो वाटरमार्क लगाया उसमे नीचे Trial Version लिखकर आ रहा जो फोटो की मौलिकता को नष्ट कर रहा है |
बाकी आप बेहतर समझ सकते है ...
धन्यवाद रितेश जी. आपको एक बार वो फिल्म जरुर देखनी चाहिए, काफी रोचक एवं प्रेरणादायक है. और हाँ, अभी मैं जिस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहा था, वो Trial Version ही था इसीलिए, वो त्रुटी आ रही थी, पर अब अगले पोस्टों में वो समस्या दूर हो जायगी .
Deleteदेर आए पर दुरस्त आए!
ReplyDeleteदसरथ माँझी के बारे में काफी पहले से मालूम है,उसका विकट साहस, अदम्य इच्छा, जिजीवषा और सबसे बढ़कर हौसला न हारने का संकल्प!
पागल तो निश्चित ही रहा होगा वो आदमी, क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया उसके लिए एक पागलपन और जूनून ही चाहिए होता है! एक साधारण इंसान तो ऐसा प्रयास करने भर की भी जुर्रत न कर पाता।
मैं खुशकिस्मत हूँ जिसने दसरथ माँझी को देखा है,भले ही टीवी पर! उसकी बातचीत सुनी है, उसकी पथराई आँखों में पसरे उस सूनेपन को महसूस किया है जो इस पहाड़ के सीने को चीर देने के बाद उसके हृदय में पनपा था!
एक अच्छी पोस्ट... जिसके लिए आपको धन्यवाद 💐 हालाँकि इस व्यक्ति के बारे में जितना पढ़ो, उतना और ज्यादा जानने की उत्कंठा तीव्र हो जाती है!
फिल्म मैं देखता नही, सो फिल्म में क्या था क्या नही, मालूम नही! पर आपकी पोस्ट अवश्य रोचक है!
Thanx for sharing....
पाहवा जी, वैसे वो फिल्म भी आपको देख ही लेनी चाहिए।
Deleteशुक्रिया।
कहानी पता थी, फिर भी लेखनी उम्दा होने के चलते आभास नहीं हुआ कि कुछ पुराना है, बेहतरीन शैली। जाना पड़ेगा यहाँ। 😊❤😊
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद् रणविजय जी
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